1. जो हो गया सो हो गया – Whatever’s done is done:
एक महात्मा एक पेड़ के नीचे प्रभु ध्यान में बैठे थे। तभी गुस्से से भरा एक आदमी आया और उसने महात्मा के शरीर पर थूक दिया। उसने उन्हें अनेकों गालियां भी दी। जब वह चुप हुआ तो महात्मा ने थूक को चादर से पौंछा और कहा- “मित्र! कुछ और भी कहना चाहते हो?” महात्मा की बात सुनकर वह आदमी चौका- “थूकने और गाली देने वाले को भी कोई इतने प्यार से ‘मित्र’ कह सकता है?”
वह चुपचाप वहाँ से चला गया। महात्मा जी का एक शिष्य यह सब कुछ देख रहा था, वह क्रोध से भर उठा उसने कहा- “गुरुदेव! वह दुष्ट आदमी आप पर थूक कर गया और आप पूछते हैं कि कुछ और कहना है?”
यह सुनकर महात्मा ने शिष्य से कहा- “कभी-कभी भाव इतना बड़ा होता है कि सब कुछ छोटे हो जाते हैं।” कोई प्रेम से इतना भर जाता है कि शब्दों में नहीं कह पाता, इसलिए वह गले लगा लेता है। जबकि, “कोई क्रोध से इतना भर जाता है कि शब्दों के द्वारा कुछ कह नहीं पता, इसलिए थूककर कहता है।”
इधर महात्मा पर थूकने वाला आदमी रात भर सो नहीं सका। वह यकीन नहीं कर पा रहा था कि ऐसा भी आदमी हो सकता है, जो थूकने पर गुस्सा करने के बजाय मित्र कहकर पुकारे और पूछे कि कुछ और कहना है। सुबह होते ही वह महात्मा के पास पहुँचा और अपने किये की माफी मांगने लगा।
महात्मा जी ने उस आदमी को सच्चे दिल से क्षमा करते हुए कहा- “जो हो गया, सो हो गया। हम तो आगे बढ़ गए हैं, कल की बात भूल गए हैं। लेकिन तुम कल की बात पर क्यों रुके हो? आप खुशी-खुशी जाओ और नेक काम करो, इसी में तुम्हारी भलाई है………।”
इतना कहकर महात्मा जी अपने शिष्य के संग आगे कदम बढ़ाने लगे……। वह आदमी खुद को ही घृणा से देखने लगा, दूसरे ही पल जब उसके मस्तिक में महात्मा के ये शब्द गूंजे- “जो हो गया, सो हो गया…..” इन शब्दों की ऊर्जा से उसने अपने आपको बदल लिया।
नैतिक शिक्षा:
पुरानी बातों के चक्कर में आज का समय खराब न करे।
2. मन निर्मल तो तन निर्मल – Man nirmal to tan nirmal:

कृष्णा नदी के किनारे एक महर्षि का आश्रम था। अपने शिष्यों सहित वह वहीं रहते थे। आसपास के गांवों में उनकी काफी ख्याति थी। साल में एक बार महर्षि गाँवों में जाकर लोगों के दुख दर्द को सुनते एवं उन्हें उचित सलाह भी देते। बदले में गाँव वाले उन्हें कुछ-ना-कुछ चीजें उपहार में दिया करते।
हर साल की तरह इस साल जब महर्षि गाँव में पहुँचे तो लोगों को बिजली की तरह उनके आने की सूचना मिल गयी। खुली जगह में एक घने पेड़ के नीचे उन्होंने अपना आसन जमाया। देखते-ही-देखते गाँव वालों की भीड़ वहाँ जम गयी। एक-एक कर महर्षि सबका दुख दर्द सुनाने लगे। उन्हें उचित सलाह भी देते जाते। साथ ही उनके द्वारा लाए गए उपहार को स्वीकार करते जा रहे थे।
काफी देर बाद एक जमींदार साहब सुसज्जित रथ पर सवार होकर वहाँ पहुँचे। उनके तन पर बेशकीमती वस्त्र थे। गले में मोतियों की माला और दोनों हाथों की अंगुलियों में हीरे जड़ित अंगूठियां थी। रथ से उतरकर महर्षि के करीब आकर उन्हें प्रणाम कर बोले, “मेरे पास सब कुछ है। मगर मन अशांत है। कुछ उपाय बताइए।”
जमींदार की क्रूरता और उसकी दुष्ट नीयत से महर्षि भली-भाँति अवगत थे। अतः वह बोले, “तुम्हारी मूर्खता की वजह से तुम्हारे मन में अशान्ति है।” कैसी मूर्खता? किसी तरह उसने अपने क्रोध को दबाकर महर्षि से पूछा। महर्षि ने अपने पास रखे नारियल को हाथ में लेकर कहा, “अगर इसका बाहरी हिस्सा साफ-सुथरा हो और अंदर का फल सड़ा हो तो उसका क्या महत्व है?”
“कुछ नहीं।” बाहरी हिस्सा तन है और अंदर का फल इसका मन। तुम्हारी मूर्खता यही है कि तुमने अपने तन को तो साफ-सुथरा रखा मगर मन को सड़ा दिया। मन के मैल की वजह से तुम्हारे जीवन में ‘आशांति’ है। तुमने गरीब जनता का शोषण ही नहीं किया है, उन पर अत्याचार और अन्याय भी किया है। जिनसे तुम्हारा मन काफी मैला हो चुका है।
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मन में, जब मैल हैं तो वहाँ शांति कहाँ से, कैसे आएगी?” महर्षि ने दो टूक बात कही। जमींदार सहमा। फिर बोले, अब क्या करूँ? “सदव्यवहार और परोपकार करके ही अपने मन की मैल को धोकर साफ कर सकते हो। तभी सच्ची शांति तुम्हें मिलेगी।” अपनी भूल का एहसास जमींदार को हो गया। उन्होंने महर्षि की बात मान ली।
नैतिक शिक्षा:
बाहरी दिखावे से अच्छा हैं आंतरिक मजबूती।
3. जल्दी अमीर बनने की लालच – Jaldi amir banne ki lalach:

अलगू चौधरी का एक बैल मर गया था। खेती-बाड़ी के लिए उसको एक बैल की बहुत जरूरत थी। अतएव एक दिन वह पाँच हजार रुपये लेकर घर से बैल खरीदने के लिए निकला। रास्ते में उसे कुछ ठग मिल गये। उनमें से एक ने उससे कहा- “तुरंत अमीर बनने का एक अच्छा तरीका है।”
-वह क्या? अलगू चौधरी उत्सुक हो उठा।
-आओ मेरे साथ- कहकर ठग ने उसे एक ऐसी जगह लाकर खड़ा कर दिया, जहाँ जुए का खेल हो रहा था। कई खिलाड़ी वहाँ मौजूद थे। अलगू चौधरी ने देखा, तुरंत कुछ खिलाड़ियों के रुपये दोगने हो गये। कुछ ललचाया। तभी ठग ने उससे कहा- “अगर तुम्हारे पास भी रुपये हैं तो अपनी तकदीर को आजमा लो।
अगर तकदीर ने साथ दिया तो अमीर बनते देर नहीं लगेगी। खेती-बाड़ी करते-करते मर जाओगे, मगर अमीर कभी नहीं बन पाओगे। बस, किसी तरह पेट भर सकोगे। जैसे-तैसे दिन काटेंगे। ठग की बात अलगू चौधरी के दिमाग में बैठ गई। वह बोला- ‘ठीक कहते हो भाई।’
-फिर देर क्यों करते हो। निकालो रुपये और आजमा लो अपनी तकदीर! ठग ने उसे प्रेरित किया।
रुपये निकाल कर अलगू चौधरी जुआ खेलने बैठ गया। तो उसकी जीत होती रही। मनोबल खूब बढ़ गया। खुशी भी हुई, मगर लालच ने उसका पीछा नहीं छोड़ा, नतीजा हुआ कि आखिर में वह सभी रुपये हार गया। खूब पछताया, उसके पास सिर्फ पाँच रुपये बचे रहे।
सिर पीटते हुए वह वहाँ से निकला। समय काफी हो चुका था। उसे ज़ोर से भूख लगी थी। मगर खाने के लिए पास में कुछ नहीं था। आसपास कोई दुकान भी नहीं थी। निराश हो कर वह घर लौट रहा था। एक आदमी बेल नामक फल बेचता हुआ उसके करीब से गुजरा। उसने उसे रोका।
चुनकर दो बेल उसने पाँच रुपए देकर खरीदें। बेल बड़े-बड़े थे मीठी महक उनसे आ रही थी। पास ही एक घने पेड़ की छांव में बैठकर उसने एक बेल खाया। बेल खूब मीठा और सवदिष्ट था। फिर पास ही कुएं पर जाकर उसने हाथ-मुँह धोया। बेल खाकर उसकी भूख शांत हुई। बचा हुआ एक बेल लेकर वह अपने घर पहुँचा।
तब तक संध्या हो चुकी थी, घर पर उसका एक दोस्त सोहन इंतजार कर रहा था। अलगु चौधरी की नजर पड़ते ही वह चहक उठा। उसने कहा- “घर में पूछने पर मालूम हुआ कि तुम कोई बैल खरीदने गए हो, मगर देखता हूँ खाली हाथ लौट रहे हो, बैल नहीं मिला क्या?
गया तो था जरूर एक बैल खरीदने मगर लौटा हूँ एक बेल लेकर। कह कर अलगू चौधरी ने आपबीती सारी घटना अपने दोस्त सोहन को बता दी। सुनकर सोहन जोर से हँसा फिर गंभीर होकर बोला- भाई लालच कभी अच्छा नहीं होता। जुआ खेलना अच्छी बात नहीं है। जो मेहनत और ईमान की कमाई से अमीर नहीं हो पता, वह जुए से कभी नहीं हो पता।
-भाई तुम्हारी बात तो खूब समझ आ रही है। अलगू चौधरी को सोहन की बात में सच्चाई नजर आई।
नैतिक शिक्षा:
लालच बुरी बला होती हैं।
4. गुरुजी को गुरु दक्षिणा – Guruji ko gurudashina:

इस बार एक शिष्य ने अपने गुरुजी से पूछा- “गुरुजी”! कुछ लोग कहते हैं जीवन संघर्ष हैं। कुछ जीवन खेल है और कुछ उत्सव, इनमें कौन सही है। गुरुदेव? पुत्र जिन्हें गुरु नहीं मिला, उनके लिए जीवन संघर्ष हैं। जिन्हें मिल गया उनके लिए खेल और जो लोग गुरु द्वारा बताए गए मार्ग पर चल पाते हैं। वही केवल जीवन को उत्सव का नाम देने का साहस जुटा पाते हैं।
गुरु जी के उत्तर के बाद भी शिष्य संतुष्ट नहीं लग रहा था। तभी गुरुजी ने शिष्य को एक कहानी सुनाई….
एक बार की बात है गुरुकुल में तीन शिष्यों ने अपना अध्ययन सम्पन्न करने पर अपने गुरुजी से गुरु-दक्षिणा के विषय में पूछा। गुरुदेव मंद-मुस्कुराए और बोले…. शिष्यों मुझे सूखी पत्तियों का एक थैला चाहिए। वे तीनों मन ही मन बहुत प्रसन्न हुए। क्योंकि उन्हें लगा कि वह बड़ी आसानी से अपने गुरुजी की इच्छा पूरी कर सकेंगे। वे बड़े ही उत्साहपूर्ण स्वर में बोले… जी गुरु जी!
और वे कहकर जंगल की ओर निकल पड़े। लेकिन वहाँ यह देखकर हैरान रह गए की जंगल की सूखी पत्तियां तो केवल मुट्ठी भर ही थी। तभी उन्हें वहाँ एक व्यक्ति दिखा। और उन्होंने उससे पूछा कि जंगल में सूखी पत्तियां कौन ले गया?
व्यक्ति ने उत्तर दिया कि सूखी पत्तियां ईधन के रूप में पहले ही उपयोग हो चुकी है। अब वे तीनों पास के गाँव में इस आशा से चल पड़े कि उन्हें वहाँ एक थैला सूखी पत्ती जरूर मिल जाएगा। गांव पहुंचते ही उन्होंने एक व्यापारी से एक थैला सूखी पत्तियों को देने को कहा। परंतु वहाँ भी निराशा हासिल हुई। क्योंकि व्यापारी कुछ देर पहले ही सूखी पत्तियों को औषधि बनाकर बेच चुका था।
जो हो सकता था वह तीनों कर चुके थे। परंतु उन्हें कहीं से एक थैला सूखी पत्ती नहीं मिली। आखिरकार वह थक हारकर वापस गुरुजी के पास लौट गए। “अरे आ गए पुत्रों, आओ ले आए थैला। तीनों के सिर झुके रह गए। पूछने पर एक शिष्य ने बताया कि…..हम लोगों को लगा की सुखी पत्तियां तो ऐसे ही व्यर्थ पड़ी रहती है। वह हमें शीघ्र मिल जाएंगी। परंतु हमें कहीं नहीं मिली।
गुरु जी मुस्कुराए और बोले अरे पुत्रों जैसे पेड़ों की सूखी पत्तियां व्यर्थ नहीं होती। ऐसे ही ज्ञान रूपी वृक्ष की सूखी पत्तियां भी व्यर्थ नहीं हुआ करती, बल्कि उनके भी अनेक उपयोग हुआ करते हैं। जाओ ज्ञान का प्रकाश फैलाओ। मेरे लिए यही गुरु दक्षिणा है।
तीनों शिष्य प्रसन्न हो गए। गुरु को प्रणाम करके खुशी-खुशी घर चले गए। जो गुरु जी से कहानी सुन रहा था। वह बोला गुरूजी मैं अच्छी तरह समझ गया कि इस दुनिया में कुछ भी व्यर्थ नहीं है। हर चीज महत्वपूर्ण है।
नैतिक शिक्षा:
हर चीज का अपना महत्त्व हैं।
5. क्रूर जागीरदार और दयालु बेटा – Kurur jagirdar aur dayalu beta:

काफी समय पहले की बात हैं। राजपूताना क्षेत्र में मान सिंह नाम का एक जागीरदार था। उसका एक पुत्र था जिसका नाम शेरसिंह था। शेरसिंह बड़ा होनहार और दयालु स्वभाव का था। एक बार राजपूताना में बरसात नहीं हुई। अकाल पड़ गया। किसान जागीरदार को लगान नहीं दे सके। जागीरदार के कर्मचारियों ने जबरदस्ती किसानों के घरों में जो कुछ भी था वह उठा लाए और किसानों को पकड़कर जागीरदार के सामने पेश किया।
शेरसिंह ने देखा की उन गरीब और लाचार किसानों को सताया जा रहा हैं। उन्हें देखकर उसे दया आई। उसने उनकी मदद करने की सोची। शेरसिंह उन दिनों घुड़सवारी सीख रहा था। जागीरदार ने कहा था कि तुम घुड़सवारी अच्छी तरह सीख लोगों, तब तुम्हें मुँह-माँगा ईनाम दिया जाएगा।
शेरसिंह ने अभ्यास करके घुड़सवारी में निपुणता हासिल कर ली। एक दिन उसने जागीरदार के सामने अपनी घुड़सवारी का प्रदर्शन किया। जागीरदार ने खुश होते हुए कहा- “बेटा! मैं बहुत खुश हूँ, बोलो क्या ईनाम चाहते हो? शेरसिंह ने कहा- पिताजी! इस वर्ष वर्षा न होने से किसानों के पास खाने को कुछ नहीं हैं तो लगान कहाँ से दे?
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इन किसानों का लगान माँफ कर दीजिए और हो सके तो इन गरीब किसानों की मदद भी कीजिए। शेरसिंह की बात सुनकर राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई। ये सब तो मैं अभी कर देता हूँ। परंतु बेटा, तुमने अपने लिए तो कुछ नहीं मांगा, कुछ तो मांगों।
इस पर शेरसिंह बोला- पिताजी! आप प्रसन्न है तो यह नियम बना दें कि जिस वर्ष फसल अच्छी न हो उस वर्ष लगान न लिया जाए। जागीरदार ने ऐसा ही किया, किसानों की जब्त की हुई चीजें लौटा दी और भविष्य में फसल न होने पर लगान न लेने का नियम बना दिया।
-शेरसिंह जैसे दयालु स्वभाव के लोग दिलों पर राज करते हैं। जबकि, शक्ति वाले लोग डरा-धमका कर क्रूर व्यवहार से लोगों को केवल डरा सकते हैं।
नैतिक शिक्षा:
विनम्र स्वभाव के लोग सभी के दिलों पर राज करते हैं।
6. इज्जत से बढ़कर कुछ नहीं – ijjat se badhkar kuch nahi:

एक बार एक लकड़हारा एक गाँव से दूसरे गाँव को जा रहा था। उस पर चार चोर टूट पड़े। लकड़हारे ने बड़ी वीरता से चोरों का मुकाबला किया। लेकिन, बेचारा लकड़हारा अकेला था, उसने अकेले ही मुकाबला किया। लेकिन, वह उन लोगों से लड़ते-लड़ते थक गया।
तब चोरों ने उस पर काबू पा लिया। काफी उत्साह से चोरों ने लकड़हारे की जेब टटोलनी शुरू की। लकड़हारे ने जिस वीरता से उनका मुकाबला किया था, उससे चोरों ने यह समझा था कि जरूर इसके पास काफी धन हैं….।
लेकिन, चोर उस समय ठगे से खड़े रह गए, जब उन्होंने लकड़हारे की पूरी तलाशी में भी मुश्किल से चार-पाँच सिक्के हासिल किये। एक चोर से रहा नहीं गया, उसने लकड़हारे से पूछ ही लिया- “हद हो गयी। इतनी मामूली सी रकम बचाने के लिए तुमने इतने जोरो से मुकाबला किया?
यदि तुम्हारी जेब में सोने के दो-तीन मुहरे भी होती, तब तो जरूर तुम हम चारों को जान से मार डालते? लकड़हारे ने जवाब दिया- “नहीं, सवाल इज्जत का हैं। मैं अपनी गरीबी अजनबियों के सामने जाहिर नहीं होने देना चाहता था। मेरी जेब में क्या हैं, क्या नहीं यह मेरा रहस्य था।” किसी के भी सामने मैं इस रहस्य को क्यों खोलता?
इज्जत की खातिर तो मैं अपनी जान भी दे सकता हूँ। ‘इज्जत’ की बात सुनते ही चारों चोर स्तब्ध रह गए….. और चुपचाप दूसरे रास्ते से तेज कदमों से आगे बढ़ने लगें…..।
नैतिक शिक्षा:
पैसे से बड़ी इज्जत होती हैं।
7. राजगद्दी योग्य राजकुमार – Rajgaddi yogy rajkumar:

एक राजा था। उसकी उम्र बहुत हो चुकी थी। उसके तीन पुत्र थे। उसने सोचा कि अब राजगद्दी, योग्य पुत्र के हाथ में सौंप दूँ। यह सोचकर राजा ने तीनों पुत्रों को बुलाया और कहा- जो भी मेरी परीक्षा में खरा उतरेगा, उसको ही राजगद्दी का अधिकारी बनाऊंगा।
राजा ने उन्हें पाँच वर्ष का समय दिया। तीनों पुत्र राजमहल छोड़कर चले गए।
“पहले ने सोचा की बहुत सारा धन कमाऊँगा, धन को देखकर पिताजी महाराज खुश होंगे।”
“दूसरे ने सोचा कि अधिकतर लोग शक्तिशाली व्यक्ति को पसंद करते हैं, तो क्यों ना मैं एक शक्तिशाली सेना तैयार करूँ। उसने एक सेना तैयार करनी शुरू कर दी।”
“तीसरे ने सोचा कि धन तो हाथ का मैल है और शक्ति से भी बड़ी बुद्धि का सदाचार है। अतः वह दूसरे राज्य में जाकर बस गया। बड़ी मेहनत करके वह जो भी कमाता, उसमें से आधा धन दीन-दुखियों की सेवा में लगाता।”
वह सब की सहायता के लिए हर समय तत्पर रहता। उसका परिश्रमी स्वभाव, दयालु तथा परोपकारी और सेवाभाव को पूरा राज्य जान गया था। राजा के कानों में भी इस बात की खबर पहुंच गई थी। राजा ने अपने गुप्तचर भेज कर भी पता लगाया कि वह परोपकारी दयालु पुरुष कौन है?
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पाँचवा वर्ष बीतने वाला था। दूसरे पुत्र ने अपने बड़े भाई के ऊपर आक्रमण करके सेना के बल पर सारी कमाई छीन ली और पैसों को लेकर पिता के पास पहुँचा। इसी बीच फटेहाल निर्धन व्यक्ति की अवस्था में तीसरा पुत्र भी आ पहुंचा। फिर तीनों पुत्रों के कार्य, स्वभाव और व्यवहार की तुलना कर रहा था कि पड़ोस के राजा के आने का समाचार मिला।
पड़ोसी राजा का स्वागत-सत्कार कर उसे राजमहल में ठहराया गया और उसके आने का कारण जानना चाहा तो पड़ोसी राजा बोला- आपसे निवेदन करने आया हूँ कि अपने छोटे बेटे का विवाह मेरी पुत्री से करने की कृपा कीजिए।
राजा ने कहा- वह तो निर्धन और फटेहाल लौटा है। वह आपकी राजकुमारी की योग्य कहाँ? पड़ोसी राजा ने उत्तर दिया- वह मेरे ही राज्य में पिछले पाँच वर्षों से रह रहा था। मेरे राज्य में उसका बहुत आदर-सत्कार है। मुझे तो ऐसे ही दामाद की आवश्यकता है। विवाह के बाद अपना राजकार्य संभालने की प्रार्थना उसी से करने वाला हूँ।
राजा ने कहा- आप कुछ दिन मेरे ही अतिथि बन कर रहने की कृपा करें। मैं उसी को अपनी राजगद्दी भी सौंप रहा हूँ। क्योंकि, मेरी कसौटी पर भी वही खरा उतरा है।
दूसरे दिन भरे दरबार में राजा ने घोषणा की कि जो संबंध शक्ति और अधिकारों का दुरुपयोग करके धन बटोरता है। जनता का शोषण करता है। वह जनता की रक्षा नहीं कर सकता। वह प्रजा को कभी सुखी नहीं रख सकता हैं।
इसी प्रकार जो शक्ति के बल पर अत्याचार करता है और दूसरों का धन लूटता है। वह भला प्रजा के सुख के लिए क्या करेगा? हाँ, जिसे हर स्थिति में दीन दुखियों की सेवा अपने कष्टों से भी प्रिय हो, वह महान है। क्योंकि, संसार में सेवा ही महान धर्म है। राजा ने अपने छोटे बेटे को अपना राज्य सौंप दिया। पड़ोसी राजा ने भी उससे अपनी बेटी का विवाह संपन्न करवा दिया।
नैतिक शिक्षा:
लोगों का दुख दर्द समझने वाला ही न्यायप्रिय हो सकता हैं।
8. सीखने की तीव्र इच्छा – Seekhne ki tivr ichcha:

मिस्टर मल्होत्रा एक होटल के मालिक थे। उनको खीर बहुत पसंद थी। उनके होटल में जो भी रसोइये (कुक) आता। सभी खूब प्रशिक्षित होते परंतु उनके द्वारा बनाई गई खीर मिस्टर मल्होत्रा को कभी पसंद नहीं आई। इसलिए कुछ ही दिनों में उनका हिसाब कर दिया जाता था।
एक दिन मिस्टर मल्होत्रा अचानक दौरे पर आए। अपने होटल में ही खाना खाने की इच्छा व्यक्त की। उसने मैनेजर को भोजन की व्यवस्था करने को कहा। मैनेजर ने कहा- सर! भोजन तो तैयार है पर आपकी मनपसंद खीर में कुछ समय लग जाएगा।
मिस्टर मल्होत्रा जी के पास पर्याप्त समय था। उन्होंने प्रतीक्षा कर ली, कुछ देर बाद मैनेजर ने उनके टेबल पर वेटर से खाना लगवा दिया। मिस्टर मल्होत्रा ने भोजन में सबसे पहले खीर को चखा इस बार खीर स्वादिष्ट थी। मिस्टर मल्होत्रा ने पूछा- यह खीर किसने बनाई है। ऐसी स्वादिष्ट खीर पहले कभी नहीं बनी।
मुझसे पूछे बिना क्या कोई नया कुक रख लिया गया है क्या? मैनेजर ने कहा नहीं सर, आज कुक को कहीं जाना था। इसलिए, कुक ने खीर नहीं बनाई। वह अपना बाकी काम समाप्त करके चला गया। परंतु अचानक आपके कहने पर यह खीर मोहन ने बनाई है।
वह बचपन से ही यहाँ काम कर रहा है। तब मोहन को बुलाकर मल्होत्रा जी ने पूछा- “तुमने यह खीर कैसे बनाई? मोहन ने कहा- “सर! जब मैंंने यह सुना कि आपके लिए खीर बनाना है तो मैं खुशी से फूला न समाया। मेरा हृदय ही नहीं रोम-रोम पुलकित हो उठा और भगवान को मैंने धन्यवाद दिया कि आज मुझे मलिक के लिए खीर बनाने का अवसर मिल रहा है।”
फिर मैं पूरी लगन से खीर बनाने में जुट गया। खीर में जो सामान मैंने उस्ताद को डालते देखा था। वही डाल दिया और जैसे-जैसे वह करते थे, मैंने धैर्यपूर्वक वही किया और खीर बन गई। मेरे पास खुद का कोई सर्टिफिकेट नहीं है। बस काम को सीखने की तीव्र इच्छा व लगन अवश्य है। बस इसी से ये थोड़ा बहुत सीख गया हूँ।
मल्होत्रा जी ने खुश होकर उसे अपने होटल में सदा के लिए मुख्य रसोइया नियुक्त कर दिया। सत्य यही है कि किसी भी कार्य के प्रति ठीक नीयत, तीव्र इच्छा व लग्न तथा विनम्रता हो तो सफलता अवश्य मिलती है।
नैतिक शिक्षा:
मेहनत और लगन कभी खराब नहीं जाती हैं।
9. अनोखी तरकीब का कमाल – Anokhi tarkib ka kamal:

एक था राजा। बड़ा ही सनकी। वह अक्सर अपने पड़ोसी राजाओं के पास तरह-तरह की धमकियां भेजा करता। कई बार तो वह उल्टे-सीधे प्रश्न भी पूछा करता। जिनका जवाब धमकी पाने वाले राजा को भेजना पड़ता था।
ऐसे ही एक बार उसने रूपा नगरी के राजा के यहाँ एक सफेद बिल्ली भेजी और कहा कि इसे अच्छे से अच्छा स्वास्थ्यवर्धक भोजन दिया जाए। लेकिन इस बात का ध्यान रहे की दो महीने के अंदर इसका एक रत्ती भी वजन न बढ़ें। यदि वजन बढ़ गया तो रूपा नगरी पर हमला बोलकर सब कुछ लूट लिया जाएगा।
रूपा नगरी के राजा ने यह अजीब समस्या अपने दरबार में रखी और इसका हल बतलाने को कहा। मुख्यमंत्री ने कहा- महाराज! एक अनोखी तरकीब है जिसके माध्यम से बिल्ली का वजन एक रत्ती भी नहीं बढ़ेगा। “भला वह कौन सी तरकीब है” राजा ने पूछा।
मुख्यमंत्री ने बताया- बिल्ली को बांधकर कर रखा जाए उसके दोनों ओर कुत्ते भी बांध दिए जाएं। लेकिन कुत्ते इतनी दूरी पर रहे कि वह बिल्ली को चीर फाड़ ना सके, जैसे मुख्यमंत्री ने कहा राजा ने वैसा ही किया ठीक दो महीने के बाद उस बिल्ली को वापस सनकी राजा का राजदूत ले गया।
इन्हें भी देखें: चतुर बंदर और शेर की कहानी – The story of clever monkey and lion
सनकी राजा ने बिल्ली को तौलने पर देखा कि उसका वजन रत्ती भर भी नहीं बढ़ा था। बात यह थी कि बिल्ली को अच्छे-अच्छे खाने के साथ-साथ रात दिन दूध मलाई भी मिला करती। इससे खून बनता तो था, लेकिन वह सारा खून उसे घुर्राते कुत्तों के कारण सूख जाता था और बिल्ली वैसी ही रह गई। रूपा नगरी के मुख्यमंत्री की इस विचित्र बुद्धिमत्ता के लिए सनकी राजा ने एक लाख सोने के सिक्के ईनाम में भिजवाए।
नैतिक शिक्षा:
सोच समझकर धैर्य के साथ लिया गया फैसला कामयाबी की तरफ ले जाता हैं।
10. महान कौन – Mahan kaun:

दीपावली का समय था। चारों ओर दीपक ही दीपक झिलमिला रहे थे। तभी उनमें से एक दीपक बोला- “देखो, मैं अंधेरे को दूर करके प्रकाश फैला रहा हूँ।” इतना सुनते ही बत्ती बोली, “दीपक भैया, प्रकाश तो मैं भी फैला रही हूँ, देख लो मैं ही जल रही हूँ।”
बत्ती की बात सुनकर तेल झट से बोल पड़ा- “बत्ती तुम भी मेरे बिना नहीं जल सकती। तुम मेरे माध्यम से ही जल कर प्रकाश फैला रही हो। इसलिए, तुमसे मैं महान हूँ।” इस प्रकार तीनों आपस में बहस करने लगे। दीपक कहने लगा- “मैं महान हूँ मेरे बिना तुम्हारी कोई सार्थकता नहीं, तो तेल और बत्ती भी अपने आपको महान कहने लगे।
उनकी बातें सुनकर मिट्टी बोली “दीपक तुम महान हो क्योंकि तुमने तेल और बत्ती दोनों को आश्रय दे रखा है। लेकिन मेरे बिना तुम्हारा भी अस्तित्व नहीं हो सकता। इसलिए अपनी अपनी जगह सभी का महत्व होता है और अपनी-अपनी जगह सभी महान होते हैं।
यदि हम सब आपस में एक दूसरे का सहयोग न करें तो यह प्रकाश उत्पन्न नहीं हो सकता। प्रकाश के लिए हमारा आपस में सहयोग नितांत आवश्यक है। अब मिट्टी की बात सुनकर सब चुप हो गए थे।
नैतिक शिक्षा:
एक दूसरे के बिना हर कोई अधूरा हैं।