Top 5 Hindi Stories with Moral – हिन्दी नैतिक कहानियां

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1. चतुराई का फल – Chaturai ka fal:

एक राजा था। वह अपने राज्य की प्रजा को खुशहाल रखने के लिए प्रयास करता रहता था। वह योग्य और नीतिवान मंत्रियों को ही राज्य की सेवा में रखना चाहता था। एक दिन राजा ने अपने तीन मंत्रियों को राजदरबार में बुलाया। राजा ने तीनों मंत्रियों को आदेश दिया कि वें एक-एक थैला लेकर बगीचे में जाए और वहाँ से अच्छे-अच्छे फल तोड़कर थैला भरकर वापस आयें।

मंत्रियों को राजा का यह आदेश अच्छा न लगा। उनके अहंकार को ठेस पहुँची, वे सोचने लगे की हम मंत्री हैं, कोई मजदूर नहीं। राजा का आदेश था। इसलिए मंत्रियों को राजा की बात माननी पड़ी। पहले मंत्री ने सोचा कि- “चलो अब फल तोड़ना ही हैं तो अच्छे और स्वादिष्ट फल तोड़ कर थैला भर लिया जाए।”

दूसरे मंत्री ने सोचा कि- “थैला भरकर फल ले जाना ही हैं, तो जो भी कच्चे-पक्के फल मिलते हैं। उनको भर लेता हूँ। राजा पूछेगा तो कह दूंगा कि बगीचे में फल ऐसे ही थे।” तीसरे मंत्री ने सोचा- “कौन इतनी सिरदर्दी ले और उसने थैले को घास-फूस से भर कर उसके ऊपर थोड़े से फल रख लिए और थैला भरकर वापस आ गए।”

राजा ने तीनों मंत्रियों को बुलाया और कहा कि तुम तीनों कल सुबह अपने-अपने फल वाले थैलों के साथ राजदरबार में उपस्थति हों। अगली सुबह तीनों मंत्री राजा के दरबार में उपस्थित हुए। राजा ने उनके द्वारा राजकार्य में की जाने वाली लापरवाही और गलतियों की सजा सुनाते हुए उन तीनों को एक महीने के लिए शहर से दूर जंगल में बनी जेल में बंद करवा दिया।

साथ ही राजा ने कहा कि जो तुम फलों का थैला भरकर लाए हो, तुम्हें उससे ही एक महीने अपना जीवन निर्वाह करना है। जेल में कोई भी इनसे एक महीने से पहले नहीं मिलेगा। अब जिस मंत्री ने राजा की बात मानकर अपने थैले में अच्छे और मीठे फल ईमानदारी के साथ भरे थे वह पूरे महीने आराम से अपना जीवन निर्वाह करता रहा।

दूसरा मंत्री जिसने कच्चे-पक्के और सड़े हुए फलों से थैला भरा था। वह कुछ दिनों बाद बीमार पड़ गया। एक महीने बाद जब वह बाहर आया तब वह काफी बीमार पड़ गया था। जिससे पता चला रहा था कि उसका एक महीने का जीवन कष्टदायक रहा।  

तीसरा मंत्री जिसने बगीचे में केवल घास-फूस और कुछ फलों से ही थैला भर लिया था, वह सजा सुनने के बाद दंग रह गया। वह जेल में कुछ दिनों तक ही जीवित रह पाया। जब एक महीने बाद उसके जेल का दरवाजा खोला गया तो वह मंत्री मृत पाया गया। 

नैतिक सीख:

कहानी की सत्यता जो भी रही हो परंतु इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि यदि हम अपने माता-पिता गुरुजनों की बात ईमानदारी से बिना किसी चलाकी और चतुराई से मान लेते हैं तो जीवन खुशहाल व आरामदायक हो जाता हैं, नहीं तो दूसरे अथवा तीसरे मंत्री की तरह परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

2. भगवान पर विश्वास – Bhagvan per vishvas:

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एक समय की बात हैं। एक बहुत अमिर व्यक्ति था। उसने अपने अकेले घूमने के लिए बहुत अच्छी नाव बनाई। और एक दिन नाव लेकर समुद्र की सैर पर निकल गया। उसे नाव चलाने में बहुत मजा आ रहा था। वह मजे-मजे में समुद्र में बहुत दूर निकल गया। शाम होने को आ चुकी थी, उसे वापस लौटना भी था कि अचानक समुद्र में भयंकर तूफान और बारिश आ गई। जिसके कारण उसकी नाव समुद्र में पलट गई और वह पूरी तरह तहस-नहस हो गई।

वह व्यक्ति ‘लाइफ जैकिट’ की मदद से किसी तरह तैरते हुए। एक टापू पर जा पहुँचा। लेकिन, वहाँ पर कोई नहीं था। फिर उसने सोचा भगवान ने बचाया हैं तो आगे यहाँ से निकलने का रास्ता भी दिखाएगा। उसने भगवान को धन्यवाद किया। धीरे-धीरे उसे वहाँ पर कई दिन बीत गए। लेकिन, उसे बचाने कोई नहीं आया।

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किसी तरह वह टापू पर लगे पेड़ों के फल से अपना जीवन चला रहा था। एक दिन उसने सोचा बारिश और धूप से बचने के लिए क्यों न यहाँ पर तब तक एक झोपड़ी बना लूँ। इस तरह उसने घास-फूस से झोपड़ी तैयार कर ली। अब उसका विश्वास भगवान पर से उठने लगा था। अब वह मन ही मन भगवान को कोसने लगा।

एक दिन अचानक मौसम खराब होने से आकाश से गरज के साथ बिजली उसकी झोपड़ी पर गिरी। जिसके कारण उसकी झोपड़ी में आग लग गई और वह जलने लगी। उसकी झोपड़ी से तेज आग की लपटें और आकाश की तरफ धुएं निकल रहे थे। अब वह आदमी टूट गया और भगवान को भला-बुरा कहने लगा।

फिर अचानक से एक नाव दो व्यक्तियों के साथ उस टापू की तरफ आई और कहने लगे- “हम यहाँ से गुजर रहे थे तो कुछ जलते हुए देखकर हम यहाँ आ गए। वह व्यक्ति दोनों आदमियों को देख कर खुश हो गया। वह व्यक्ति दोनों हाथ जोड़कर अपने घुठने पर बैठ गया।

वह भगवान से माँफी मांगते हुए कहने लगा। भगवान तू जो भी करता हैं अच्छा करता हैं। आज अगर मेरी झोपड़ी जली नहीं होती तो यहाँ पर कोई नहीं आता। इस तरह वह फूट-फूट कर रोने लगा और अपना विश्वास भगवान के ऊपर से डगमगाने के लिए माँफी मांगने लगा।

नैतिक शिक्षा:

जो भी होता हैं अच्छे के लिए होता हैं। लेकिन किसी भी परिस्थिति में हमें भगवान के प्रति विश्वास को डगमगाने नहीं देना चाहिए।

3. उपकार का फल – Upkar ka fal:

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एक समय की बात हैं। माधो खेत में फसलों को पानी देकर वापस जंगल के रास्ते अपने घर को जा रहा था। अचानक उसे किसी तरफ से बच्चे की चीखने और चिल्लाने की आवाज सुनाई दी। माधो ने सोच जरूर कोई मुसीबत में हैं। वह उस आवाज की तरफ चल पड़ा।

आगे जाकर देखा कि एक 10-12 साल का बच्चा दलदल में फंसा पड़ा था। उसने उसके पास जाकर अपने हाथ को उसे पकड़ाने की कोशिश की। लेकिन उन दोनों के बीच अंतर अधिक होने की वजह से वह बच्चा माधो का हाथ नहीं पकड़ पाया। शाम होने को आ चुकी थी। उस दलदल में जहरीले कीड़े-मकोड़े और जंगल में खतरनाक जानवर थे।

माधो ने उस बच्चे को समझते हुए कहा- “बेटा तुम घबराओ मत, मैं तुम्हें यहाँ से जरूर निकालूँगा।” उसने कहा तुम यहीं कुछ मिनट रुको, मैं तुम्हें यहाँ से निकालने की व्यवस्था करता हूँ। माधो भागते हुए अपने खेत की तरफ गया। वहाँ से एक बड़ी और मजबूत रस्सी ले आया।

रस्सी के एक सिरे को उसने खुद पकड़ लिया और दूसरा सिरा उस बच्चे को दलदल में पकड़ा दिया। बड़ी मुस्किल से वह बच्चे को बहार निकाल पाया। जब बच्चा बाहर आया तो उसके हाथ पैर में कीचड़ लगा था। माधो ने उस बच्चे का कीचड़ साफ किया। और उससे पूछा- “तुम इस कीचड़ में कैसे फँस गए?” बच्चे ने कहा- मैं मुंबई शहर में रहता हूँ। मैं अपने बुआ के घर घूमने आया हूँ।

आज कुछ बच्चों के साथ मैं जंगल के जानवरों को देखने के लिए यहाँ पर आया था। लेकिन, और सभी दोस्तों से बिछड़ जाने के कारण मैं यहाँ पर फँस गया। इस तरह बात करते हुए माधो ने बच्चे को उसके घर पहुंचा कर, देर रात में वह अपने घर पहुँचा। घर पहुंचकर बच्चे ने सारी घटना को अपनी बुआ को सुनाया।

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कुछ समय बाद उसके माता-पिता भी बाजार से वापस आ गए। यह घटना सुनकर वे दोनों सहम गए। अगले दिन सुबह-सुबह माधो के घर एक चमचमाती कार आकर रुकी। माधो सकपका गया। उसने सोचा कौन हो सकता हैं। कार में वह बच्चा और उसके माता-पिता थे। बच्चे को देखकर माधो उसे पहचान गया। उसके माता-पिता माधो के समाने हाथ जोड़कर उनका ऐहसान जताने लगे।

माधो ने कहा यह तो मेरा फर्ज हैं। “माधो का निवास देखकर, बच्चे के माता-पिता उन्हें कुछ पैसे देने लगे।” लेकिन, माधो ने पैसे लेने से माना कर दिया। इतने में उन दोनों की नजर माधो के बेटे के ऊपर पड़ी। वे दोनों माधो से पूछते हैं कि आपका बच्चा कहाँ पढ़ाई करता हैं।

माधो ने मना करते हुए कहा- ”साहब! हम लोगों को बड़ी मुश्किल से खाने पीने का हो पाता हैं। इतने पैसे हमारे पास कहाँ कि हम अपने बच्चे का स्कूल में दाखिला करवा सके। उस व्यक्ति ने कहा अब से आपका बच्चा स्कूल जाएगा। जिसका खर्च मैं उठाऊँगा। इस तरह उस बच्चे ने स्कूल जाना शुरू कर दिया। वह पढ़ लिखकर एक दिन बड़ा आदमी बना। उसने अपने घर की गरीबी दूर कर दी।

नैतिक शिक्षा:

निष्काम भाव से किया गया कार्य कही न कही व्यक्ति को लाभ जरूर देता हैं।

4. रक्तदान महादान – Raktdan mahadan:

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“मम्मी, ये लो आपके लिए दवाइयाँ और कुछ पैसे। एक जगह काम किया था।” मनीष दवाई, और पैसे माँ के हाथ में रखते हुए बोला। “तुम आज फिर कॉलेज नहीं गए। तुमको पढ़ा-लिखाकर जाने क्या-क्या बनाने के सपने देख रही हूँ और तुमको मुझे सताने में ही मजा आता हैं। मेरी थोड़ी-सी तबीयत क्या बिगड़ी कि तुम मनमानी करने लगें। नहीं पढ़ना हैं तो साफ-साफ बता दो मनीष।”

मनीष ने कुछ कहना चाहा तो उसे रोकते हुए वे बोली, “मुझसे बात करने की जरूरत नहीं हैं। ये दवाई वापस करके आओ, मुझे नहीं खाना हैं। अपने पैसे भी अपने पास ही रखो।”

मनीष के पिता का एक सड़क दुर्घटना में निधन हो गया था। जहाँ तक संभव होता, मनीष माँ के कामों में हाथ बटाता। माँ के बीमार पड़ने पर वह चिंतित हो गया था। कॉलेज से छूटने के बाद वह एक-दो घंटे कहीं न कहीं छोटे-मोटे काम कर लिया करता था। माँ की बात सुनकर उसकी आँखों में आँसू आ गए।

माँ उससे बात करने, उसकी कुछ भी सुनने के लिए तैयार नहीं थी। वह चुपचाप अपने कमरे में जाकर लेट गया। थोड़ी देर बाद मनीष का दोस्त रोहित आया। उसने मम्मी को प्रणाम किया तो वे बोली, “बेटे यहाँ से तुम जाओ। मनीष अब कॉलेज नहीं जाएगा। अब वह कमाऊ हो गया हैं। पूरा दिन काम करेगा तो पढ़ेगा कैसे।

आंटी जी, आप यह क्या कह रही हैं। मनीष पढ़ने में बहुत अच्छा हैं। शिक्षकों को उस पर नाज हैं। आखिर बात क्या हैं? “रोहित के पूछने पर माँ ने सारी बातें बता दी। माँ की नाराजगी का कारण जानने के बाद उसने बताया- “आँटी जी, मनीष कॉलेज आया था। प्रिंसिपल के कहने पर वह एक मरीज को खून देने गया था। मनीष के रक्त का जो ग्रुप हैं। वह बहुत कम लोगों में पाया जाता हैं।

प्रिंसिपल ने उसकी स्वीकृति पाने के बाद ही उसे हास्पिटल भेजा था। रक्तदान करने से मरीज की जान बच गई। उसके घर वालों ने मनीष को पुरस्कार के रूप में रुपये दिए। मनीष ले नहीं रहा था। उसका कहना था कि वह सौदेबाजी नहीं कर सकता। उन लोगों ने प्रिंसिपल से फोन पर बात की।

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प्रिंसिपल सर ने मनीष से कहा, सम्मान के रूप में वे जो दे रहे हैं ले लो।” यह जानने के बाद माँ उदास-सी होकर बोली, “रक्तदान-महादान। मेरे बेटे ने इतना नेक काम किया फिर भी मैंने उसे डाँटा, जाने क्या-क्या कहा। “आंटी जी आपकी इसमें कोई चूक नहीं हैं। मनीष सही बात बता देता तो यह स्थिति नहीं बनती।

उसे लगा होगा कि रक्तदान की बात सुनकर आप घबरा जाएंगी। आपको दुख होगा। मनीष कहाँ हैं? क्या मैं उससे मिल सकता हूँ? “वह अपने कमरे में सो रहा हैं। नींद तो उसे आई नहीं होगी। चलो देखते हैं।” दोनों मनीष के कमरे तक पहुँचते, इससे पहले वह बाहर आ गया।

वह रोहित से बोला- “दोस्त की पोल खोलने वाले मिस्टर जी, सजा तो तुम्हें मिलेगी। अब हमारी तुम्हारी बोलचाल बंद।” माहौल खुशनुमा हो गया। माँ ने कहा तुम दोनों बातें करो, मैं चाय बनाकर लाती हूँ। मनीष ने माँ को चाय बनाने से मना कर दिया, और खुद चाय बनाकर लाया।

तीनों ने चाय पी। माँ ने कहा, “बेटे! रक्तदान महादान इसलिए हैं कि, इसकी थोड़ी-सी बूंदों से किसी को जीवनदान मिलता हैं। इसलिए इस मानवीय कार्य में कभी पीछे नहीं रहना चाहिए। लेकिन, हाँ; आगे जब भी रक्तदान करना हो तो मुझे अवश्य बताना। इसलिए कि अभी तुम बच्चे हो।”

नैतिक शिक्षा:

रक्तदान से बढ़कर कोई दान नहीं होता। इसलिए कहा जाता हैं- “रक्तदान महादान।”

5. सच्चा दोस्त – Saccha dost:

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किसी रात एक धर्मशाला में कई लोग ठहरे हुए थे। उनमें एक भला और सुलझे दिमाग का आदमी भी था। उसने अपनी रोचक बातों से सभी का ध्यान अपनी ओर खींचा। फिर उसने एक सवाल किया, “यहाँ कोई ऐसा है जिसका कोई सच्चा दोस्त हो?”

सवाल सुनकर वातावरण में एक छण चुप्पी छा गई। फिर एक ने बोला, “यह कलयुग है। सच्चा दोस्त मिलता कहाँ है।” ठीक कहा! आजकल के दोस्त मतलबी होते हैं।” दूसरे से पहले की बात को पुष्ट किया। शब्दों के थोड़ा हेर-फेर के बाद वहाँ मौजूद सभी ने ऐसा ही जवाब दिया। 

फिर तो मैं खुशनसीब हूँ, छोटे बड़े कई मेरे सच्चे-अच्छे दोस्त हैं।” सब चौंक उठे। उनमें से एक बोला, “आज के जमाने में जहाँ अधिकतर आदमी स्वार्थ से घिरे होते हैं। आपको सच्चे दोस्त कैसे मिल गए? “इसमें कोई अचरज की बात नहीं है। आज भी सच्चे-अच्छे दोस्तों की कमी नहीं है।” भला आदमी बोला, “और उसे पाने का तरीका भी सरल है। 

“क्या तरीका हैं?” सभी उत्सुक हो उठे। “हमें यह देखने की जरा भी जरूरत नहीं है कि जिसे हम दोस्त बनाना चाहते हैं, वह कैसा है?” तो फिर? सभी चकित थे। “जरूरत है, हम जैसा दोस्त चाहते हैं, पहले हम स्वयं को दूसरे का वैसा दोस्त बनकर दिखाएं। 

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हम निस्वार्थ दोस्ती का परिचय दें। एक बार नहीं कई बार।” “मगर इससे क्या होगा?” सवाल बना ही रहा। “हम जब दूसरे का सच्चा दोस्त बनेंगे तो एक दिन हमारी सच्चाई और अच्छाई बुरे व्यक्ति को भी जरूर प्रभावित करेगी और उसे सच्चा दोस्त बनने पर मजबूर कर देगी।

बस थोड़े धैर्य की जरूरत है। साथ ही अपनी सच्चाई-अच्छाई पर हमें भरोसा भी होना चाहिए। उनमें दम हो।” भले व्यक्ति ने आगे कहा, “याद रहे, स्वार्थी व्यक्ति को ही सच्चे और अच्छे दोस्त नहीं मिलते। अच्छा ही ताकतवर में हो तो आस-पास के लोगों को अच्छा और बुरा उन्हें बुरा बना देती है। 

ऐसे में दूसरों में दोष न देखकर अपने में सुधार लाए तो स्थिति बदल सकती है।” “बहुत खूब!” वहाँ मौजूद लोगों को भले व्यक्ति के विचार से एक रोशनी मिली। उनकी सोच बदली।

नैतिक शिक्षा:

जैसा आप चाहते हैं, पहले वैसे खुद को बनाना पड़ेगा।

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