मूर्ख व्यक्ति की सोच:
एक आदमी था। उसकी विद्वता की चर्चा दूर-दूर तक होती थी। विद्वता के सभी गुणों में वह युक्त था। विनम्रता भी उसमें कूट-कूट कर भरी हुई थी। हर कोई उसे मान-सम्मान देता। वह भी हर किसी की कद्र करता। अभिमान को वह कभी अपने पास फटकने नहीं देता। गुणवत्ता से वह सदैव दूसरों की मदद ही किया करता। परोपकार के कार्यों में उसे सुकून मिलता। जीवन में प्रसन्नता आती।
आदमी कितना भी गुणी क्यों न हो सभी को नहीं भाता। अच्छा नहीं लगता। उस विद्वान व्यक्ति के साथ भी ऐसी ही बात थी। एक मूर्ख व्यक्ति को वह फूटी आँख नहीं सुहाता था। उसके किसी भी गुण की चर्चा सुनकर वह क्रोधित हो जाता और उसकी बुराई करना शुरू कर देता। कोई भी व्यक्ति उससे उलझना पसंद नहीं करता था। ऐसे में विद्वान मूर्ख आदमी की बात सुनकर नजरअंदाज कर देता। कोई प्रतिक्रिया नहीं देता। चुप्पी साध लेता। फलतः मूर्ख व्यक्ति समझता कि सभी उसकी बातों से सहमत है।
“अतएव जब भी जहाँ भी उसे मौका मिलता, वह विद्वान आदमी में खोट निकालने से कभी नहीं चूकता। वह अक्सर उसके बारे में दूसरों के सामने दो टूक कह देता, मैं उसे कुछ नहीं समझता। कुछ नहीं मानता। मेरी नजर में वह बिल्कुल घटिया किस्म का आदमी है। लोग पागल है जो उसका गुणगान करते हैं। वह आदर का पात्र तो है ही नहीं।”
आमने-सामने होने पर मूर्ख व्यक्ति विद्वान व्यक्ति को नीचा दिखाने की चेष्टा करता। उसे किसी तरह अपमानित करना चाहता और करता भी। मगर विद्वान व्यक्ति उसकी बातों पर ध्यान नहीं देता। ऐसा करने पर मूर्ख व्यक्ति चिढ़ जाता। बहुत से लोगों को मूर्ख आदमी की ये बेहूदी हरकत अच्छी नहीं लगती। फिर भी वह चुप रहते।
एक दिन की बात है। गांव के चौपाल में विद्वान आदमी के गुणों का बखान कई लोग कर रहे थे। मूर्ख आदमी भी वहाँ मौजूद था। वह झट बोल उठा, “तुम लोग जिसकी इतनी बड़ाई कर रहे हो, वह उसके बिल्कुल काबिल नहीं है। मैं यही मानता हूँ।” वहाँ बैठे एक युवक को मूर्ख आदमी की बात अच्छी नहीं लगी। उसने झट उससे पूछा,
“एक सवाल करूं?” “जरूर” जवाब मिला। “उल्लू को कभी देखा है, उसके बारे में कुछ जानते हो?” “क्यों नहीं!” “उसे दिन में दिखाई देता हैं?” “बिल्कुल नहीं।” “उल्लू को दिन में दिखाई नहीं देता है, क्या इससे दिन की सुन्दरता घट जाती है?” “नहीं तो”।
उसी तरह तुम उल्लू हो। तुम्हें अगर विद्वान व्यक्ति की अच्छाई दिखाई नहीं देती तो यह तुम्हारा दोष है, उसका नहीं। तुममें जो अंधापन है, उसकी वजह से विद्वान व्यक्ति की महत्ता कम नहीं हो जाती। यह बात तुम अच्छी तरह जान लो। उसकी निंदा-शिकायत कर, तुम अपनी मूर्खता ही जाहिर कर रहे हो और कुछ नहीं।”
युवक की खरी-खोटी बात से मूर्ख व्यक्ति सकपका गया। लज्जित हो उठा। उसी क्षण उस विद्वान व्यक्ति के बारें में कुछ भी कहना बंद कर दिया।
नैतिक सीख:
मैं बुद्धिमान हूँ, सोचना अच्छी बात हैं। लेकिन मैं ही बुद्धिमान हूँ, सोचना घमंड और मूर्खता को दर्शाता हैं।
अमेरिका के पहले राष्ट्रपति जार्ज वाशिंगटन और मजदूर:

एक व्यक्ति घोड़े पर सवार था। उसकी सेहत बहुत अच्छी थी। उसने साफ-सुथरे कपड़े पहने हुए थे। सिर पर हैट था। वह घूमने के लिए निकला था। घूमते-घूमते वह नगर के बाहरी हिस्से में पहुँच गया। वहाँ एक बड़ा भवन बन रहा था। व्यक्ति ने भवन की तरफ देखा। भवन लंबी-चौड़ी जगह पर बन रहा था। वहाँ काफी मजदूर और कारीगर काम कर रहे थे। कारीगर दीवारों को चीनने में जुटे थे तो मजदूर वहाँ तक सामग्री पहुंचाने में जुटे थे। सब काम बिल्कुल ठीक ढंग से चल रहा था।
व्यक्ति सब देखता हुआ आगे बढ़ने ही वाला था कि उसकी नजर मजदूरों की एक टोली पर पड़ी। मजदूर एक बड़े पत्थर को वहाँ से उठाकर आगे दीवार के समीप ले जाना चाह रहे थे। पत्थर बहुत भारी था और उसे सामने बन रही दीवार में लगाया जाना था। मजदूर यूं तो कई थे, परंतु पत्थर उनकी सामर्थ्य से कहीं अधिक वजनदार था।
वे उसे उठाने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा रहे थे। पत्थर अपनी जगह से थोड़ा-सा हिलता और फिर अपनी पहली अवस्था में लौट जाता। मजदूर पसीना-पसीना हो रहे थे। वह उसे वहाँ से उठाकर ले जाने के लिए अपनी सारी युक्तियों को उपयोग में ला चुके थे। सभी युक्तियां बेकार साबित होती जा रही थी। मजदूरों से थोड़ा हटकर एक व्यक्ति खड़ा था। उसकी वेशभूषा और व्यवहार से लग रहा था कि वह या तो ठेकेदार है या मजदूरों पर निगाह रखने वाला सुपरवाइजर।
बाद में पता चला कि वह एक सुपरवाइजर ही है। सुपरवाइजर अपनी जगह पर खड़े-खड़े मजदूरों का हौसला बढ़ाता रहा। लेकिन, जब वे अपने काम कर पाने में विफल रहे तो वह उन्हें भला बुरा कहने लगा। उसने मजदूरों को कामचोर तक कह डाला।
व्यक्ति घोड़े की पीठ पर बैठे हुए यह सब देख रहा था। उसके मन में मजदूरों के प्रति सहानुभूती उमड़ आई। उसका अनुमान था कि यदि एक और व्यक्ति मजदूरों के साथ लग जाए तो वह भारी पत्थर आसानी से दीवार पर रखा जा सकता है।
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उसने सुपरवाइजर के निकट पहुंचकर विनम्रतापूर्वक कहा- “महाशय जी, यदि आप, स्वयं इन मजदूरों के साथ लगकर कर थोड़ी-सी ताकत का उपयोग कर ले तो इसे सरलता से दीवार तक पहुंचाया जा सकता है।” घुड़सवार व्यक्ति के द्वारा इस प्रकार काम में दखल दिया जाना सुपरवाइजर को बिल्कुल भी अच्छा ना लगा। उसने उखड़े हुए स्वर में उत्तर दिया- “मैं यहाँ काम करने के लिए नहीं, काम करने वाले मजदूरों पर नजर रखने के लिए हूँ, समझे! यह काम मजदूरों का है, इन्हें ही करने दें।”
“आप देख चुके हैं कि यह भारी पत्थर सब लोग मिलकर भी नहीं उठा पा रहे हैं। इनकी ईमानदारी पर आपको संदेह नहीं करना चाहिए। ये पूरी तरह पसीने से भीगे हुए हैं। आप जरा-सा सहारा दे देंगे तो यह काम झट से हो जाएगा।” घुड़सवार व्यक्ति ने सुपरवाइजर को समझाने का प्रयास करते हुए फिर से कहा।
सुपरवाइजर गुस्सा हो उठा बोला- “आपको इन मजदूरों से ज्यादा ही सहानुभूति है तो घोड़े से उतरकर उनका सहयोग क्यों नहीं करते? तभी तो पता चलेगा कि आपके मन में उनके लिए सच्ची हमदर्दी है।”
इतना सुनते ही घुड़सवार घोड़े से नीचे उतर आया। अपना कोट और हैट उतारकर एक ओर रख दिया। फिर मजदूरों के साथ आकर उनका उत्साह बढ़ाते हुए कहा “शाबाश! पूरा जोर लगाओ भाइयों! पत्थर अभी अपनी जगह पहुँच जाएगा।”
मजदूरों पर घुड़सवार व्यक्ति की बात का प्रभाव तुरंत पड़ा। उसने भी पूरी ताकत लगा दी। देखते ही देखते पत्थर दीवार के पास पहुँच गया। घुड़सवार ने अपने हाथ साफ किए, कोट पहना, सिर पर हैट रखा फिर घोड़े पर सवार होकर बोला- “सुपरवाइजर महोदय, कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता। काम, काम होता है।
याद रखो दूसरों की मदद करने वाला ही सच्चा इंसान होता है। यदि कभी किसी काम को निपटाने में एक आदमी की जरूरत पड़े तो तुम राष्ट्रपति भवन आ जाना।”
सुपरवाइजर ने अपने सामने घोड़े पर बैठे अमेरिका के पहले राष्ट्रपति जार्ज वाशिंगटन को नहीं पहचाना था। राष्ट्रपति की बात सुनकर वह शर्म से पानी-पानी होकर उनसे क्षमा मांगने लगा।
नैतिक सीख:
हमें मानवता के नाते एक दूसरे की मदद करनी चाहिए।
डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर की मेहनत:

एक नौजवान को तरह-तरह की पुस्तकें पढ़ने का बड़ा शौक था। अपने छात्र जीवन में वह अक्सर अपने मित्रों से पुस्तकें मंगाकर पढ़ाई किया करता था। दरअसल पुस्तकें खरीदना उसके लिए संभव नहीं था। क्योंकि उसके पास पैसे नहीं थे। लेकिन, था वह बड़ा ईमानदार और बुद्धिमान। कई बार ऐसा भी हुआ उसने भूखे रहकर पढ़ाई की और भोजन का पैसा बचाकर पुस्तकें खरीदी। यूं वह हर वर्ष क्लास में अच्छे नंबरों से पास होता था।
एक दिन उस नौजवान ने मन में सोचा पैसा तो पास में है नहीं, अब आगे की पढ़ाई कैसे होगी? तभी उसके मन में विचार आया। उसने अपनी समस्या अपने एक मित्र को बताई। मित्र ने कहा- जूनागढ़ के राजा अच्छे नंबरों से पास होने वाले छात्रों को अपने खर्चे से विदेशों में पढ़ाई के लिए भेजते हैं।
मित्र के पिता ने यह बात जूनागढ़ के राजा को बताई तो उन्होंने तुरंत दोस्त नौजवान को बुलाया और कहा- ‘तुम उच्च पढ़ाई के लिए लंदन जाओ, तुम्हारी पढ़ाई की व्यवस्था हो जाएगी।’
वह नौजवान खुशी-खुशी लंदन जाकर पढ़ाई करने लगा। तीन-चार माह तक तो राजघराने की सहायता समय पर मिली, लेकिन उसके बाद सहायता मिलना बंद हो गई। अब नौजवान के सामने दो समस्या थी एक तो पेट भरना दूसरा पढ़ाई का खर्च।
फिर भी नौजवान ने हिम्मत ना हारी इधर-उधर छोटा-मोटा कार्य करके कुछ पैसों का जुगाड़ कर लिया करता। नौजवान पैसों की तंगी के कारण सादे कपड़े पहनता, अपने जूते पर स्वयं पॉलिश किया करता, कपड़े भी स्वयं धोया करता।
हाँ, इस प्रकार से जो बचत हुआ करता उससे वह पुस्तकें खरीदा करता। एक बार उसे अर्थशास्त्र की एक पुस्तक की सख्त जरूरत थी और वह पुस्तक इतनी महंगी थी कि उसके बजट से बाहर थी। बिना पुस्तक के पढ़ाई संभव नहीं थी। इसलिए वह एक पुरानी पुस्तकों की दुकान पर पहुँचा। वहां अर्थशास्त्र की पुस्तक देखकर वह मन ही मन बड़ा प्रसन्न हुआ। दस पाउंड देकर उसने वह पुस्तक खरीद ली।
पुस्तक खरीदकर सीधे एक सस्ते होटल में पहुँचा। खाने के मेज पर बैठकर पुस्तकें पढ़ने लगा। पुस्तक से नजरें हटाकर जैसे ही उसने मेज की तरफ देखा तो वेटर भोजन के प्लेट लिए खड़ा था। तभी नौजवान को ध्यान आया कि जेब तो खाली है, सारे पैसों की पुस्तक खरीद ली हैं। अब क्या किया जाए?
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फिर उसने बात बानकर दबी मुस्कान के साथ कहा- ‘क्षमा करना मेरे भाई… मुझे ध्यान ही नहीं रहा। आज तो मेरा व्रत है।’ यह कहकर उस नौजवान की आँखें भर आई। उसने अपनी जिंदगी में पहली बार झूठ बोला था। होटल से निकलकर वह अपने रूम पर पहुँचा और पूरे दस दिन केवल ब्रेड और गुड खाकर गुजारा करता रहा। क्योंकि दस दिन के भोजन के पैसे तो पुस्तक खरीदने में खर्च हो गए थे।
तो आप जानना चाहेंगे यह नौजवान कौन था? यह नौजवान था- “भीमराव अम्बेडकर” उन्होंने कठिन परिस्थितियों में भी हिम्मत नहीं हारी। परिस्थितियाँ कैसी भी रही। उन्होंने अपने हौसले बुलंद रखें। आगे चलकर जिसने हमारे देश के लिए संविधान की रचना की। हमारे देश के गौरवमय इतिहास में डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर स्वर्ण अक्षरों में अंकित हैं।
नैतिक सीख:
परिस्थितियाँ कैसी भी हो, अपने लक्ष्य से नहीं भटकना चाहिए।