बच्चों के लिए कहानियाँ हिंदी में | Stories for Childrens in Hindi

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बुद्धिमान मेंढ़क – Wise Frog:

एक मेंढक था। वह बहुत चतुर था। एक कौवा कई दिन से उसे पकड़ने का प्रयास कर रहा था। लेकिन मेंढक उसके हाथ ही नहीं आ रहा था। आखिरकार, एक दिन कौवे को अच्छा मौका मिला। मेंढक आराम से बैठा धूप सेंक रहा था। तभी कौवे ने उसे पीछे से धर दबोचा और टाँग पकड़ कर आकाश में ले उड़ा।

बेचारा मेंढक घबराया तो बहुत लेकिन उसने साहस नहीं छोड़ा। वह अपने मुक्त होने की युक्ति सोचने लगा। उड़ते-उड़ते कौवा एक पेड़ पर बैठ गया और मेंढक से बोला- “मरने के लिए तैयार हो जाओ, अब मैं तुम्हें खाऊंगा” मेंढक अब काफी संभल चुका था। 

वह मुस्कुराता हुआ बोला- हे कॉकराज! आप शायद इस पेड़ पर रहने वाली भूरी बिल्ली को नहीं जानते? वह मेरी मौसी है। यदि तुमने मुझे जरा भी नुकसान पहुँचाया तो तुम्हारे प्राणों की खैर नहीं हैं। कौवा थोड़ा भयभीत हो उठा।

उसने फिर से मेंढक की टाँग पकड़ी और उड़कर एक पहाड़ी पर जा बैठा। मेंढक के बुरे हालात थे। उसने सोच लिया कि कौवा उसे छोड़ने वाला नहीं है। लेकिन, उसने अपने चेहरे पर भय की शिकन तक न आने दी। हे कॉकराज! यहाँ भी आपकी दाल गलने वाली नहीं हैं। 

यहाँ भी मेरा भौं-भौं कुत्ता रहता है। यदि उसे पता चला कि तुम मुझे खाना चाहते हो तो वह तुम्हारे पंख नोच लेगा। -मेंढक ने कहा। निराश होकर कौवा वहाँ से भी उड़ा और एक नदी के किनारे जा बैठा। “मैं समझता हूँ कि यहाँ तुम्हें बचाने वाला कोई नहीं है।” कौवे ने मेंढक से कहा।

बेचारे मेंढक के हाथ पैर फूल गए थे। फिर भी वह अपनी बुद्धि बल से सोच कर बोला- “कॉकराज अब तो मैं आपके ही हाथ में हूँ आप मुझे आराम से खा सकते हो। मगर कितना अच्छा होता कि तुम अपनी चोंच थोड़ा तेज कर लेते। जिससे मुझे कम कष्ट होगा।”

कौवा मेंढक के बहकावे में आ गया और बोला- “अरे यह कौन-सी बड़ी बात है।” यह कहकर अपनी चोंच नदी के किनारे एक पत्थर पर घिसने लगा। मेंढक के लिए  इतना अवसर बहुत था। उसने तुरंत उछलकर पानी में डुबकी लगा दी। 

बेचारा कौवा, अपना-सा मुँह लेकर बैठ गया। तभी पानी में से एक आवाज आई- “ कॉकराज! चोंच तो आपने तेज कर ली अब बुद्धि भी अपनी तेज कर लो। तब मैं कहीं आपके हाथ आऊँगा। बेचारा कौवा अपनी मंदबुद्धि पर तरस खा रहा था।

कहानी से सीख:

परिस्थितियाँ कैसी भी हो बुद्धि और साहस के साथ समस्या का हल निकालना चाहिए।

राजा और बेरोजगार व्यक्ति – The king and the unemployed man:

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विजयगढ़ राज्य का राजा भानु प्रताप था। एक दिन राजा जंगल में अकेले अपने घोड़े पर शिकार के लिए गये। परन्तु अचानक उनका घोड़ा बेकाबू हो गया और वह घोड़े से गिर गया। यह देख एक व्यक्ति ने उसी समय उन्हें उठाया उनकी देखभाल की तथा उन्हें पानी पिलाया। 

राजा अब ठीक अवस्था में थे। राजा ने मदद के लिए उसका शुक्रिया अदा किया, तथा उससे उसका नाम और कार्य के बारे में पूछा। “व्यक्ति ने अपना नाम मोहन बताया और कहा कि वह बेरोजगार है। राजा ने व्यक्ति को अपने महल में पहरेदारी करने के लिए प्रस्ताव दिया।” 

अगले दिन व्यक्ति राजदरबार में पहुंच गया। राजा ने व्यक्ति को कार्य के विषय में समझाते हुए कहा- “उसे पूरी रात पहरेदारी करनी होगी, सोना नहीं होगा। अगर कभी सोते हुए पाए गए तो सजा मिलेगी। व्यक्ति को बहुत दिन हो गए थे महल की पहरेदारी करते हुए। 

एक रात राजा के महल की रोशनी बंद होते ही वह भी सो गया। उस व्यक्ति ने उस रात एक सपना देखा कि राजा एक शहर जा रहे हैं। और वहाँ भूकंप आ गया। अगले ही दिन राजा दूसरे शहर जाने के लिए तैयार हो रहे थे कि उस व्यक्ति ने उन्हें अपने सपने के बारे में बताया। 

राजा उसकी बात सुनकर रुक गया और तभी खबर मिलती हैं कि सच में वहाँ भूकंप आ गया हैं। अगले दिन राजा ने उस व्यक्ति को बुलाया और अपने गले से सोने की माला उपहार देकर अगले दिन से नौकरी पर ना आने का हुक्म दिया। 

तो बच्चों! राजा ने उस व्यक्ति को उपहार सिर्फ जान बचाने के लिए दिया और नौकरी से इसलिए निकाला क्योंकि उसने अपनी ड्यूटी ठीक से नहीं निभाई। वह अपनी ड्यूटी के समय सो गया था।

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कहानी से सीख:

वाह-वही के चक्कर में हम अपनी हकीकत बता देते हैं।

मन के अशुद्ध विचार – Impure thoughts of mind:

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तीन चार लोग एक स्थान पर बैठकर आपस में बातें कर रहे थे। बातों ही बातों में वे किसी न किसी की बुराई और छींटाकशी कर रहे थे। किसी को बेईमान, किसी को कामचोर तो किसी को रिश्वतखोर और न जाने किस-किस रूप में चरित्र हनन करने का आरोप लगा रहे थे। 

इन बातों में उन्हें बहुत मजा आ रहा था। वह हर बात को बढ़ा-चढ़ा कर बोल रहे थे। इसी दौरान उन्हें खाना परोसा गया। खाना खाते-खाते किसी के मुँह में कंकर आ गया, तो किसी के मुँह में बाल आ गया। उनके मुँह से अब तक जो बुराई और क्रोध दूसरों के बारे में निकल रहा था। अब उनके खाने में कंकड़ और बाल ने आकर और भी भड़का दिया। अब वे लोग और भी अशान्त और अमर्यादित हो गए। 

इसी बीच एक विवेकी पुरुष वहाँ आया और बोला- इस खाने में कंकर और बाल मैंने डाले थे। क्योंकि मैं तुम्हारी बातें सुन रहा था और तुम्हें बताना चाहता था कि “तुम केवल वही खाना चाहोगे जो खाने योग्य है, तुम बाल और कंकर-पत्थर नहीं खाना चाहोगे। 

क्योंकि वे तुम्हारी सेहत को खराब कर देंगे। मैं देख रहा था कि तुम ना जाने कितने अशुद्ध विचारों से अपने मन को मलिन करते जा रहे थे। हमें ध्यान रखना चाहिए कि अगर अशुद्ध भोजन हमारे स्वास्थ्य शरीर को खराब कर सकता है तो अशुद्ध विचार भी अवश्य ही हमारे मन को अशुद्ध कर देंगे। 

जीवन में जो भी स्वच्छ, निर्मल, शुद्ध एवं स्वास्थ्यवर्धक हो वही खाएं, वही सोच, वही बोले और वही कर्म करें। हर वह कर्म जिससे जीवन में आनंद एवं संतुष्टि का अनुभव हो वह कार्य ही उत्तम एवं श्रेष्ठ होता है। कसौटी यह है कि क्या मुझे अमुक कार्य करने पर आनंद मिला और अगर मिला तो परम शुभ है।

कहानी से सीख:

विचारों की ताकत को कम नहीं समझना चाहिए।

अभ्यास का महत्त्व – Importance of practice:

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गुरु द्रोणाचार्य के आश्रम में कौरव, पांडव, यदुवंशी और दूसरे देशों के राजकुमारों के साथ द्रोणाचार्य का पुत्र अश्वत्थामा भी शिक्षा प्राप्त करता था। प्रतिदिन पढ़ाई शुरू होने से पहले सभी शिष्यों को आश्रम से कुछ दूर बह रही नदी से पीने के लिए पानी भर कर लाना पड़ता था। 

द्रोणाचार्य अपने पुत्र से बहुत प्यार करते थे। वह चाहते थे, उनका पुत्र शिक्षा और अस्त्र-शस्त्र के प्रयोग में सबसे योग्य निकले। इसलिए, उन्होंने अश्वत्थामा को सबसे हल्का और छोटा बर्तन दे रखा था। जबकि, अन्य शिष्यों को बड़े और भारी बर्तन दे रखे थे। 

सुबह सब शिष्य पानी भरने जाते थे। अश्वत्थामा का बर्तन छोटा था। इसलिए वह जल्दी लेकर आ जाता था। अन्य शिष्यों के बर्तन बड़े थे इसलिए वे देर से और धीरे-धीरे लाते थे। अश्वत्थामा का बर्तन हल्का भी था। इसलिए वह जल्दी से आश्रम लौटकर अपने पिता से अस्त्र-शस्त्र चलाने के गुप्त रहस्य सीख लेता था। 

एक दिन अर्जुन ने यह बात ताड़ ली। वह भी शिक्षा और युद्ध कौशल में अश्वत्थामा से कम नहीं रहना चाहता था।  इसलिए, अर्जुन दौड़कर जाता, जल्दी से पानी का बर्तन भरता और तेज कदमों से चलकर अश्वत्थामा के साथ आश्रम में पहुँचता। साथ पहुँचने की वजह से अर्जुन को भी अश्वत्थामा के बराबर ही शिक्षा मिलने लगी। 

एक बार की बात है। सभी शिष्य आश्रम में भोजन कर रहे थे। अचानक तेज हवा चलने लगी। हवा से आश्रम में जल रहा दीपक बुझ गया और आश्रम में अंधकार छा गया। अंधेरा होने पर भी सभी शिष्य भोजन करते रहे। भोजन करते समय अचानक अर्जुन का ध्यान एक बात पर गया। 

खाना खाने का मनुष्य को इतना अभ्यास होता है कि अंधेरे में भी थाली से खाना उठाकर हाथ सीधा मुँह के पास ही पहुँचता है। इस बात से अर्जुन के मन में विचार आया। आदमी को खाने का अभ्यास होता है। 

इसलिए अंधेरे में भी आदमी का हाथ भोजन के बर्तन से बिना भटके मुँह तक पहुँचता है। इस बात से अर्जुन के मन में एक विचार आया कि निशाना लगाने के लिए प्रकाश की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता है सिर्फ अभ्यास की। 

जरूरत है प्रयत्न करने की। अर्जुन ने मन ही मन में दृढ़ निश्चय किया कि वह अंधेरे में ही निशाना लगाने का अभ्यास करेगा। अर्जुन ने अपना विचार किसी को नहीं बताया। खाना खाकर सब शिष्य अपनी-अपनी चटाइयों पर लेट गए। सबको लेटते ही नींद आ गई। लेकिन अर्जुन की आँखों में नींद नहीं थी। 

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तब जब सब गहरी नींद में सो गए, अर्जुन धीरे से उठा। उसने अपना धनुष और तीर उठाए और धीरे से आश्रम से बाहर निकल आया। अर्जुन आश्रम से कुछ दूरी पर जंगल में चला गया। जंगल में घनघोर अंधेरा था। हाथ से हाथ दिखाई नहीं दे रहा था। अर्जुन ने अंधेरे में अपना लक्ष्य बनाया और वह निशाना साधकर तीर चलाने लगा। 

उस रात के बाद, अर्जुन हर रात को अपने साथियों के सो जाने के बाद अंधेरे में बाण चलाने का अभ्यास करने लगा। एक रात की बात है। द्रोणाचार्य की अचानक नींद टूट गई। तभी उन्हें कुछ आवाज सुनाई पड़ी। ध्यान से उन्होंने उस आवाज को सुना। उन्हें ऐसा लगा मानो कोई तीर चला रहा है। 

कौन हो सकता है? द्रोणाचार्य धीरे से उठे आश्रम से निकलकर वह आवाज की दिशा में चले गए। उन्होंने देखा घने जंगल में घोर अंधकार में कोई तीर चला रहा है। कौन है तीर चलाने वाला; यह जानने के लिए वह जोर से बोले, “कौन हो तुम? अंधेरे में क्या कर रहे हो?

“मैं अर्जुन”, अर्जुन द्रोणाचार्य की आवाज पहचान गया। इसलिए डरते हुए बोला, “गुरुजी मैं निशाना लगाने का अभ्यास कर रहा हूँ।” “बेटा ऐसे अंधेरे में? द्रोणाचार्य आश्चर्य से बोले। “अंधेरे में आदमी थाली से रोटी का निवाला तोड़कर मुँह तक डाल सकता है तो फिर अभ्यास करके अंधेरे में निशाना क्यों नहीं लगाया जा सकता?”

अपने शिष्य की बातें समझ में आने पर द्रोणाचार्य अर्जुन को गले से लगाते हुए बोले, “बेटा मैं वचन देता हूँ कि- “मैं ऐसा प्रयास करूँगा कि संसार में तुमसे बड़ा कोई धनुर्धर नहीं होगा।” और उस दिन से द्रोणाचार्य अर्जुन पर विशेष ध्यान देने लगे।

कहानी से सीख:

लगातार प्रयास और लगन से हम किसी भी चीज में महारथ हसिल कर सकते हैं।

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